संतुष्टि

कभी कभी आप कुछ देखते हो, महसूस करते हो, सोचते हो, मनन करते हो और फिर आप ये समझते हो कि जिंदगी हमेशा आपको कुछ न कुछ सिखाती ही रहती है, बस जरूरत उन सब से सीखने भर की होती है।
आज सुबह से ही ठंड ज्यादा थी या शायद मुझे लग रही थी क्योंकि सर्दी जुखाम फिर से हो गया था मुझे। ये कमजोर इम्यून सिस्टम भी ना आये दिन की मुसीबत खड़ी कर देता है। हा तो ठंड ज्यादा थी तो सुबह 11 बजे तक सीधे दाल, चावल, सब्जी बनाकर खाना ही खा लिया था, नाश्ता स्किप कर लिया था कि इतनी बार ठंड में किचन में काम न करना पड़े। खाना खाकर सिंक में बर्तन ठुसाते हुए उनको पानी से भरकर मैं बाहर धूप में बालकनी में  रखी कुर्सी पर बैठ गई। गुनगुनी सी धूप में कुछ देर मोबाइल चलाती रही फिर बोर होने लगी तो मोबाइल साइड में रख दिया और यूँही आस पास देखने लगी। चारो और बिल्डिंग्स, व्यस्त लोग, भागते, दौड़ते लोग, लोगों के घरों की छतें, कही कही छतों पर बनाये गए खूबसूरत से टेरेस गार्डन। दूर दूर तक नजर डालती रही और फिर नजर पड़ी अपनी बिल्डिंग के जस्ट बगल में बन रही एक नई बिल्डिंग पर। आजकल तो दिल्ली में कही जगह ही नही बची, सब जगह 4 या 5 मंजिला बिल्डिंग्स ही बिल्डिंग्स। और  जहाँ कहीं कोई पुरानी बिल्डिंग,एक मंजिला मकान या दुकान हैं उनको भी तोड़कर नई बहुमंजिला इमारतें खड़ी कर दी जाती हैं।  तो जो सामने नई बन रही इमारत है वो भी पहले एक पुरानी सी एकमंजिल  इमारत ही थी जिसे किसी और ने खरीद लिया। पहला काम किया बिल्डिंग को तोड़ने का, 
और पुनः नई बिल्डिंग बनाने का। तो आज उसी में पहली मंजिल का लेंटर डाल रहे थे। पहले उसपर नजर पड़ी तो मन मे पहला विचार यही आया अरे अभी 1 महीने पहले तो ये घन, हथोड़े से पुरानी बिल्डिंग की छत को तोड़ रहे थे बड़ी जल्दी जल्दी काम चल रहा है। बस अब ध्यान से काम करते लोगो को देखने लगी। सब अपने अपने काम मे व्यस्त, अलग अलग जिम्मेदारियों को निभाते हुए। कुछ काम तो मशीनों ने भी सरल कर दिया है। तरह तरह की मशीनें कंस्ट्रक्शन फील्ड में आ गई है। आज फुर्सत थी तो पुराने तरीके भी याद आ रहे थे कि कैसे लेंटर डालने के दिन सुबह से ही कितने व्यस्त हो जाते थे, गाँव घरों में तो आज भी यही होता हैं। गावों में जहाँ लेंटर डालना हो पूरा गांव ही इकट्ठा हो जाता था, खाना पीना भी गाँव के लोगो का साथ ही होता। पूरा दिन लग जाता 500 गज के लेंटर में भी। रात होते होते थोड़ा पार्टी नाच गाना भी चलता।
 शहरों में नई नई व्यवस्थाऐ, तकनीकें आ गई हैं, काम फिर भी सरल हो गया है तो लेंटर भी जल्दी ही डल जाता है और मजदूर वगैरह भी जल्दी ही फ्री हो जाते हैं। यही नया पुराना सोचते सोचते फिर से ध्यान लेंटर की और ही चला गया। अब एक साइड लेंटर डल चुका था और मजदूरों का लंच टाइम हो गया था। कुल 5 या 6 ही मजदूर छत में लगे थे तो सबने हाथ धोएं फिर दूसरी साइड की छत पर धूप में बैठ गए। न चटाई न बिछौना बस सीधे छत की फर्श पर। गोल घेरा से बना लिया और अपने अपने थैले से खाना निकालने लगे। पहले ही उनको ठंडे फर्श पर यूँही बैठते देख मैं चौक गई थी और जब उन लोगों ने खाना निकाला तो और चौक गई। एक ने एक प्लास्टिक की पन्नी में रखा चावल पन्नी में ही फैलाया और दूसरी पन्नी से दाल या कुछ रसदार सब्जी चावल के ऊपर उड़ेल दी। कोई टिफिन नही, थाली प्लेट नही, कटोरा नही, चम्मच नही। उसने सब मिक्स किया और बड़े बड़े कौर/ग्रास बनाते हुए खाने लगा। बाकी पर नजर डाली तो सभी इसी तरह खा रहे थे, कुछ रोटी सब्जी, कुछ दाल चावल पर तरीका सेम कोई बर्तन नही। पन्नियों में ही स्वाद लेकर खाते हुए। चेहरे पर असीम आनन्द, बाते करते हुए, उन लोगो ने अपना खाना खाया,  एक पानी की बोतल से पानी पिया। और फिर से काम शुरू। मैं बैठी देर तक सोचती रही कैसी संतुष्टि थी सबके चेहरे पर खाने के बाद। कोई रिग्रेट नही कि कोई सुख सुविधा संसाधन नही हैं सबने अपना भोजन हस्ते हुए किया। फिर खुद पर ध्यान गया कि मुझे तो हर चीज अलग कटोरे की आदत है, बढ़िया चटाई या चेयर पर बैठकर खाती हूँ फिर भी वो खुशी जैसी उनके चेहरे पर दिखी वो अपने मे नजर नही आती। हाँ तब जरूर आती थी जब मम्मी आग के चूल्हे पर गर्मा गरम रोटियां सेकती जाती और हमकों खिलाती, पर वो तो माँ के हाथों का प्रेम हुआ। ये कौन सी ख़ुशी थी इनको? 
शायद ये खुशी थी सन्तुष्टि की, भगवान के दिये के उपकार को मानने की, भूख मिटने की, उस निवाले की जो बहुत मेहनत से ये बेचारे मजदुर खुद ही बनाते होंगे। ये कद्र थी अपनी मेहनत की, परिश्रम की और मेहनत की कमाई की। खुशी कि, काम मिल रहा है तो पैसे भी मिलेंगे, जिसे अपने गाँव, अपने घर भेज सकेंगे। खुद भले ही पन्नियों  में खा ले पर परिवार को शायद किसी थाली में खाने का आराम हो जाएं। 
एक संतुष्टि, एक मुस्कान - गरीबी कितनी ही क्यो न हो पर चेहरे की एक मुस्कान पर तो वो भी मर मिटती होगी ही। 
बहुत देर तक मंथन ही चलता रहा मन मे और वो लोग अपना पूरा काम करके चल भी दिए।

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