मेरा दादू भाग- 2

हेलो दोस्तों आज फिर मैं आप सबके सामने हाज़िर हूँ अपनी और  अपने दादू  की शरारतो का पोटला लिए हुए, पर सबसे पहले आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद मेरे ब्लॉग को समय देने और उसे पढ़कर अपने विचार देने का. आगे  भी  अपने अमूल्य सुझाओ से मुझे प्रेरित करते रहिएगा.
तो अब वापस आते हैं अपनी शरारतो  पर जैसा की आपको बताया की मेरा दादू हमेशा मेरा दोस्त ,मार्गदर्शक और आलोचक रहा हैं, साथ ही वो मेरी हर शैतानी में मेरा पार्टनर भी रहा हैं  - बचपन बहुत भोला और मासूम सा होता जरूर हैं पर साथ ही बहुत शैतानी भरा भी कुछ यही हाल था हमारा भी बस हमारी शरारतो से कभी किसी का नुक्सान नहीं होता था और हर बार कुछ ऐसा होता की हम अपनी शरारतो से कुछ अच्छा  भी सीख ही जाते थे.   हमारे पापा फारेस्ट डिपार्टमेंट में जॉब करते थे तो इस कारण हम अधिकतर फारेस्ट कवाटर्स  में ही रहे हैं तब पापा की पोस्टिंग पिथौरागढ़ जिले के गंगोलीहाट  के दशाईथल नामक एक छोटी  सी  पर बहुत ही सुन्दर जगह पर  थी ये वो समय था जब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का ही भाग था. यहां से मैंने बिद्यार्थी जीवन में कदम रखा.   इसी छोटी सी जगह पर मैंने पहली बार अपने ददा की उंगलिया पकड़ते  हुए  स्कूल में कदम रखा, मैं अपने ददा के साथ उस जगह के  शिशु मंदिर में पढ़ने गई. पहली बार स्कूल जाने का उत्साह एक नया बैग नयी कापियां नयी पेन्सिल रबर कटर  और नयी ड्रेस जिसमे होती थी नीले रंग की स्कर्ट सफ़ेद पजामा और नीले  रंग की स्वेटर और सफ़ेद ही रूमाल जो बेज़ की तरह ही  पिन से हमें लगाया जाता था था. उस समय ज्यादा पब्लिक स्कूल नहीं थे और शिशु मंदिर बेस्ट माने जाते थे जो की उस कसबे का एकमात्र पब्लिक स्कूल था.ददा मुझसे बड़ा था तो उसे तो अ आ लिखना, गिनतियाँ आदि  तब तक आ चूका था अब बारी मेरी थी तो कभी पापा मेरी उंगलिया पकड़ कर मुझे सीखा रहे हैं कभी मम्मी खाना बनाते बनाते मुझे अ आ रटा रही हैं तो कभी दादू भी अपना ज्ञान मुझे बाँट रहा हैं और मुझे लगता की बस किसी तरह ये लिखने से बच जाऊ, लिखती तो थी नहीं पर  पेंसिल छिलने का मुझे बड़ा शौक  था और साथ ही रबड़ भी चबा जाती. रोज एक नई पेंसिल मुझे दी जाती जो उसी दिन इतनी छोटी हो चुकी होती की मुश्किल से हाथ आती इसका भी हल निकाला गया वो ऐसे की जो  पेन  बेकार हो गया होता उसके ऊपर  के खाली  हिस्से में पेंसिल को बाकायदा ठूंसा जाता ताकि निकले न.  काफी कोशिसो के बाद मुझे भी लिखना आ ही गया और मैं आगे बढ़ने लगी सब चल रहा था साथ साथ पढ़ाई भी मस्ती भी शैतानी भी.  अब तक मेरा छोटा भाई भी आ चूका था तो दादू  और मुझे एक अलग रूम दिया गया सोने को अब तक मम्मी पापा के बीच में चुपचाप रहते थे अपना रूम क्या मिला मानो बहार ही आ गई  कमरे में दादू  और मुझे एक ही पलंग मिली पलग के एक साइड तो टेबल रखी हुई थी और एक साइड थोड़ी जगह छोड़कर एक लकड़ी की अलमारी.  और दादू  रोज रात को मुझे लात मारकर पलंग और अलमारी के बीच गिरा देता और जब मैं जोर जोर से रात को रोती की मुझे नीचे गिरा दिया हैं तो बड़े प्यार से उठाता आजा ऊपर आजा तू कैसे गिर गई नीचे तुझे कहता हु ना सीधे सोया कर मानो मुझे तो शौक  हैं नीचे गिरने का. और कभी कभी गुस्से में कहता की आज से तू मेरे साथ नहीं सोयेगी  तो ऐसे ही अपने दिन कुछ खट्टे कुछ मीठे  मजे में गुजर रहे थे एक बार रात की लाइट चली गई, तब लाइट भी एक बड़ी समस्या हुआ करती थी कभी कभी तो २-२ दिन तक चली जाती  अब लाइट तो थी नहीं  जाड़ों का समय था मम्मी  ने सबको  जल्दी जल्दी खाना खिलाया   और बिस्तर लगा  दिया सबका , अपना तो गरमा गरम बिस्तर में सो  गए और हम दोनों को कहा गया की लैंप की रौशनी में पढ़ाई करो, अब हम दोनों ने पढ़ाई तो क्या करनी थी मैं लगी दादू  को ऐड सुनाने तब चैनल के नाम पर केवल दूरदर्शन ही था और जो भी ऐड आते वो मुझे याद रहते तो मैं हो गई शुरू- 

"मैगी मैगी मैगी मम्मी बड़ी गजब  की भूक लगी, दो मिनट रुक सकते हैं सर के बल रह सकते हैं क्योकि बड़ी गजब  की भूक लगी मैगी चाहिए मुझे अभी "                                                                                                                                                                                 
"प्रेस्टीज़ प्रेशर कुकर जो बीवी से करे प्यार वो कैसे करे प्रेस्टीज़ से इंकार  प्रेस्टीज पेशेर कुकर "!

"दम लगा के हईशा, जोर लगा के हईशा,जीतेंगें हम खीचो सारे तोड़ भी दो मानते ही नहीं ये फेविकोल का  मजबूत का जोड़ है टूटेगा नहीं फेविकोल ऐसा जोड़ लगाए अच्छे से अच्छा ना तोड़ पाए."

"निरमा .. निरमा... वाशिंग पाउडर निरमा. दूध सी सफेदी निरमा से आये रंगीन कपडा भी खिल खिल जाये सबकी पसंद निरमा... वाशिंग पावडर निरमा."

जनाब ये तो कुछ ही हैं दादू  को तो पूरा घंटा भर सुनाया जाता सुबह उठने के साथ ही और रात में भी, और वो बड़ी ही तल्लीनता से सुनता भी.  तो उस रात ये ऐड सुनाते सुनाते जब काफी टाइम हो गया तो अचानक पापा की गरजदार आवाज़ सुनाई दी सो जाओ चुपचाप, पढ़ना वडना तो कुछ है नहीं  गप्पे मार लो बस. पढ़ाई के नाम से ही ठंडा लगता हैं, इतना सुनना था की हम दोनों को  बहुत हसीं आ गई उनके डाटने के तरीके से , हमे लैंप बुझा कर सोने को कहा गया और हम बत्ती बुझाने की कोशिश करने लगे पर हम दोनों ही इतना हंस रहे थे की मुँह से हवा तो  निकल ही नहीं रही थी केवल हूँ.. होऊ.... होओ..की ही आवाज़ आ रही थी  हंसी रोकने और फूँक निकालने  के चक्कर   में. अब पापा और ज्यादा गुस्से में- ये क्या हूँ हूँ हूँ लगा रखा हैं  बत्ती बुझाओ और सो जाओ चुपचाप और ज्यादा हूँ हूँ हूँ ना करते हुए हमने फिर बत्ती की नोब घुमा दी जिससे बत्ती नीचे चली जाती ह और बुझ जाती हैं, तो इस तरह हमारी बत्ती तो बुझ गई पर अगली सुबह हमको अच्छे से,, मतलब बहुत  ही अच्छे से समझाया गया.  एक काम और किया गया की पढ़ाई के वक़्त हमको दूर दूर और अलग अलग बैठाया  जाने लगा. कुछ समय और बीता, अब हमारी शरारतो में एक साथी और जुड़ गया था और वो था हमारा छोटा भाई, हम सब  घर के सामने बने बड़े से मैदान में साथ में छुपन - छुपाई, पकड़म पकड़ी खेलते,  कभी धनुष तीर बना लिए जाते और माहिर शिकारी की तरह  पेड़ो पर चढ़ जाते और शिकार करने का अभिनय करने लगते खुद को रामायण या महाभारत के  पात्रो से काम नहीं समझते थे ऐसे वक़्त में हम.  कभी कुश्ती भी खेली जाती आपस में और  कभी क्रिकेट भी  और अब तो कभी कभी कब्बड्डी भी खेलने लगे जैसे जैसे हम बड़े हो रहे थे हमे नए नए खेलो से पहचान भी होती जा रही थी. क्रिकेट खेलने का मेरा तरीका भी बड़ा बिचित्र होता था, बॉल  पर बैट और मेरा राइट पैर दोनों साथ ही उठ जाते बॉल किक करने को. ऐसे में मैं जल्दी आउट हो जाती पर मैं खुद को आउट तो कतई नहीं मानती  थी और रोने बैठ जाती की मेरे साथ चीटिंग की गई हैं मुझे तेज़ बॉल डाली हैं. बड़ी मुश्किल होती दादू  को मुझे मानाने में.  कई बार खेल के चक्कर  में खुद को चोट लगा बैठती, पर खेलना और दादू का गेम बिगाड़ने में मैंने कभी कोई कसर नहीं छोड़ी थी. हा हा हा   फिर आई दादू  के लिए साइकिल शायद एटलस थी या हीरो  की, सब बड़े प्यार से साइकिल साफ़ करते उसके ध्यान रखा जाता सजावटी चीज़ो से उसके पहिये सजाये जाते, नयी नयी सजावटी चीज़ो से साइकिल की हैंडल सवारी जाती, नई नई टोन वाली घंटी लगाई जाती ट्रिन ट्रिन ट्रिन वाली, कभी गाने वाली. मैं रोज ददा के साथ उसकी साइकिल पर बैठ जाती और ददा मुझे दूर तक   घुमाने ले जाता ये रोज का काम था हमारा साइकिल पर गाते गुनगुनाते हम मजे किया करते. शाम होते ही हम रेडी हो जाते साइकिल भ्रमण के लिए  कुछ समय के लिए यही हमारा खेल रहा..
                       आज के लिए बस यही पर अपनी यादो को विराम देती हूँ फिर मिलेगी ये तिकड़ी आपको अपनी शरारतो के साथ.  अब छोटा भी तो आ गया हैं ना शरारतो में साथ देने के लिए, इसीलिए अब ददा मैं और मनु मिलकर तिकड़ी बनाने लगे हैं . शरारते भी कुछ ज्यादा ही हो गई हैं और मम्मी अपने तीन मासूम बच्चों को लाइन में लाने पर लगी रहती हैं.....  ये ब्लॉग आपको केसा लगा बताइयेगा जरूर अपने लाइक्स और कमैंट्स के द्वारा. इंतज़ार रहेगा... 

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मडुए की बात - रोटी से लेकर पौष्टिकता तक

भांग डाली पहाड़ी साग(गडेरी व लाही) का अनोखा स्वाद

संतुष्टि