क्या हमारी आने वाली पीढ़ी ये सब देख पाएगी ?

आज काफी समय बाद अपने एक परिचित से बात हुई, ये परिचित मेरे लिए मेरे बड़े भाई के  सामान हैं,आज से कुछ साल पहले जब मैं पर्यावरण विशेषज्ञ के रूप में एक प्रोजेक्ट से जुडी थी तब इनसे वहां मेरा परिचय हुआ और जब तक मैंने वहाँ काम किया वो सदैव मेरे साथ भ्रातातुल्य रहे. काफी विचारशील व्यक्ति हैं और जमीन से जुड़े हुए भी, अपनी थोड़ी सी खेती की जमीन पे शाक सब्जी आदि पसल उगाना, गाय पालन में बड़ा ही मन रमता हैं उनका. जब तक उनके साथ काम किया उनके खेतो से ताज़ी भिंडी, फूलगोभी या पत्तागोभी खूब खायी  हैं

बातो बातो में उन्होंने कहा की आजकल तो बानर  या सुवर कुछ रहने ही नहीं दे रहे हैं इसलिए अब खेतो में ज्यादा कुछ नहीं लगा रहे हैं इस बार तो बंदरो ने हल्दी अदरख भी नहीं छोड़ा हैं खोद खोद कर सब निकाल लिए हैं मटर आदि का तो मत ही पूछो.   इस कारण आजकल और लोग भी खेती करने में कम ही रूचि रख रहे हैं बहुतो ने तो खेत बंजर भी छोड़ दिए हैं , पता नहीं आगे को भी क्या होगा.....उनकी चिंता तो मैं समझ ही रही थी  साथ ही एक नई चिंता भी मुझे घेर रही थी की ऐसा ही रहा और हर चीज़ इसी तरह छोड़ते रहे तो पता नहीं कुछ समय बाद उनका नामोनिशान या यादें भी रहेंगी की नहीं. पता नहीं हमारे बच्चे , आने वाली पीढ़ी को पता भी होगा की बाकुला, चौलाई  कैसे दिखते हैं  या उसका पौधा कैसा होता हैं काफल,हिसालु,किल्मोड़ा, मेहल, पांगर,तुष्यार,  जैसे जंगली फल वो चख भी पायेंगें की नहीं. क्या वो पया(पदम्), ढाक(टेसू या पलाश), कुशा जैसी चीजे जान पायेंगें. मानीर, झिंगोरा,बाजरा, मड़ुआ  जौ  केवल नाम में ही रह जायेंगें. पाथर से बनी छतें,  मिटटी या पथ्थरो के मकान  केवल तस्वीरो में ही रह जायेंगें. बहुत ही लम्बी सूची हैं . इसीलिए तो सोचने वाली बात हैं, और उससे भी ज्यादा डराने वाली बात.  बहुत सी चीज़े जो हमारे मम्मी पापा या दादा नाना के ज़माने में होती थी उनमे से कई चीज़ो का नामो निशाँ ही मिट गया. जो कुछ संभाला जा सकता था वो कही किसी संग्रहालयों में किसी कोने किनारे पड़े होंगें,  हमारा या और  कितनो का ध्यान उन चीज़ो को देखने , सहेजने  में जाता हैं ? जब हम उन चीज़ो से थोड़ा बहुत जुड़े होने के बावजूद इतना उदासीन हैं तो क्या हम अपने आने वाली पीड़ी से ये अपेक्षया   क़र सकते हैं.  जब हमने उनको वो चीज़े दी ही नहीं, वो चीज़े दिखाई ही नहीं तो कैसे उनको उन चीज़ो से लगाव महसूस होगा. आज बच्चो का पसंदीदा टाइम पास हैं मोबाइल, टी.वी. या विडिओ गेम. दिन भर एक ही जगह पे बैठ कर खेलते रहो न शारीरिक थकान और न ही मानसिक थकान. उन्होंने तो गुट्ठी, बाघ-बकरी, अड्ड़ू, राजा-रानी, बोल मेरी मछली कितना पानी, छुपन-छुपाई, ऐंठी , घुसड़ पट्टी, पेड़ो में चढ़ना, नदी तालाबों पोखरों में नहाना जंगलो में घूमना जैसे खेल तो खेले ही नहीं   जिसमे एडवेंचर भी हैं थकान भी और सोच को भी नयी दिशा मिलती रहती हैं जितना आप नया सीखते जाते हो. ये सब अभी भी संभाला जा सकता हैं अभी भी बचाया जा सकता हैं बस थोड़ा सी जरुरत अपने बच्चों को इन सब के बारे में  बताने की हैं. कभी खेलिए संडे को उनके साथ राजा -रानी, गोठ-बकरी, या घुसड़-पट्टी ही सही. सुनाइए कोई कथा कहानी, कोई पहेली (एण), कोई हास्योड़ काथ, कोई भूत की भगवान् से लड़ाई का प्रसंग ही सही. अंग्रेजी जरूर पढाइये पर  अपनी मातृभाषा और  अपनी बोली भी  साथ में जरूर सिखाइये. और साल में एक बार, १० दिन के लिए ही सही बच्चों को गांव भी जरूर ले जाइये.  इस भागती दौड़ती  दुनिया में  कुछ पल जो सुकून के हैं वो केवल अपनी जमीन में ही हैं. आगे जरूर बढ़ना हैं पर अपनी धरोहरों को साथ लेकर. जापान इस बात का एक अच्छा उदाहरण हैं  जहाँ पुरा और नूतन (नया-पुराना) दोनों का ही बहुत अच्छा मिश्रण देखने को मिलता हैं! और जापान किस पोजीशन पर है ये बताने की जरुरत नहीं हैं. कोई इंसान या देश भी तभी तरक्की क़र पाता हैं जब वो अपने पारम्परिक ज्ञान को भी सहेजकर रख सकता है

अब आपके हाथो  में हैं  कि आपको अपने बच्चों को कैसा संसार देना हैं  मेकेनिकल, रोबोटिक या जीवन से भरा हुआ.............

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