अनचाही ................................



समाचार  पढ़ रही थी तो एक खबर पर ध्यान रूक गया खबर थी की  बेटे की चाहत थी, बेटी पैदा हुई तो नाम रख दिया 'अनचाही'. गुस्सा भी आया और सोच पर तरस भी. इसी बात को मैं अपने  पति से साझा  करते हुए बिचार विमर्श कर रही थी. एक बात जो उन्होंने कही - लोग कहते हैं कि  बेटे वंश आगे बढ़ाते हैं  ये सही नहीं हैं क्या राम का, रावण का या कौरवो का, पांडवो  का वंशज कोई हैं आज? इतने शासक  हुए  हिंदुस्तान  में, एक के बाद एक अगली पीढ़ी सिहासन में बैठी  उनके वंश क्या अमिट रहे. एक समय ऐसा जरूर आता हैं जब सब नष्ट  हो जाता हैं कुछ नहीं बचता वंश भी नहीं. तो ये बात तो सिरे से ही गलत हैं. दूसरी बात जो उन्होंने कही कि परिवार और घर की स्त्री यदि चाहे तो कोई भी बेटी गर्भ में ही मारी नहीं जायेभी, कोई भी बेटी अनचाही न कहलाई जाये. सही  कहा उन्होंने.  स्त्री जब तक स्वयं ही नहीं समझेगी की संतान तो संतान हैं क्या बेटा और क्या बेटी,  जीवन पथ पर दोनों ने ही आगे बढ़ना हैं कोई भी हमेशा आपके साथ ही रहेगा इसकी कोई गारंटी नहीं हैं . ये सोच तो स्त्री और पुरुष दोनों ने ही बदलनी होगी  कि  बेटा वंश बढायेग, आपका बुदापे में भी ध्यान रखेगा, चिता को आग लगाएगा या आपका श्राद्ध करके आपको तारेगा. ये सब काम तो आज बेटी भी कर ही रही हैं तो इन सबसे कोई फर्क नही पड़ता हैं, बल्कि अभी समाचारों में आया था की एक बहु ने ही अपने ससुर का अंतिम संस्कार किया था. समय बदल रहा हैं अब अपनी सोच भी बदलनी होगी.
मैं स्वयं एक लड़की हूँ, बहुत बार देखा हैं और महसूस भी किया हैं की  क्या एक लड़की होने के कारण  मैं कभी कोई चीज़ नहीं कर पाई, क्या जो चाहती थी कर पाई जवाब हमेशा हाँ में ही मिलता हैं  क्यों? कैसे? इसलिए की मेरे साथ मेरा परिवार जुड़ा था, मेरे मम्मी पापा मेरे साथ थे, तभी तो मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर पाई, जॉब कर  पाई  और शादी भी मैंने तभी की जब मैं इसके लिए तैयार हुई,  मन में यही था इतना पढ़ा हैं तो कुछ तो करना ही हैं  अपने पसंद की जॉब करनी हैं  जिस उम्र में मेरी शादी हुई उस समय तक तो मैं अपने गांव की बहनो के बच्चो की ताई बन चुकी थी क्योकि गांव में आज भी लड़कियों के हाई स्कूल  या इण्टर करते ही  शादी हो जाती हैं और एक दो साल बाद वो माँ का फर्ज भी निभाने लगती हैं. इस बात के लिए मैं हमेशा अपने पेरेंट्स के शुक्रगुजार रहूंगी की उन्होंने मुझे समझा और मेरे सपनो को पूरा करने में  हमेशा मेरा साथ दिया, ऐसा नहीं था की मेरे मम्मी पापा को लोगो की बातें नहीं सुनना पड़ी उनको भी कहा जाता था बेटी इतनी सयानी हो गई हैं अब कब करोगे शादी, कुछ तो बाकायदा मुझे बूढी भी कहने लगे  तो कोई कहता इससे छोटी लड़कियों के तो बच्चे भी हो गए. कुछ और थे जो कहते बेटी की कमाई खा रहे हो ,सुनकर बड़ा ही गुस्सा आता था पर एक बात जो मैं जानती थी वो ये की मेरे मम्मी पापा भाई मेरे साथ थे इसलिए लोग क्या कहते हैं इस बात की परवाह मैंने कभी की ही नहीं.   स्त्री स्वयं में शक्ति हैं परन्तु अगर  परिवार आपके साथ हैं तो आपकी शक्ति कई गुना और बाद जाती हैं.
 आज की सबसे बड़ी समस्या  यही  है कि लड़कियों को गर्भ में ही मार दिया जाता है।  गर्भ में ही जांच करवा लिया जाता हैं कि आने वाली संतान क्या हैं जबकि लिंग जांच करवाना  क़ानूनी रूप से गलत तो हैं ही सामाजिक रूप से भी गलत हैं. और बहुत बार इस जांच को स्वयं होने वाली माँ ही करवाती हैं, कैसी विडम्बना हैं की एक औरत दूसरी औरत को जन्म ही नही देना चाहती हैं. जिसके कारण  स्त्री और पुरुष अनुपात में  स्त्रीयों की संख्या में कमी हो रही है।  इस कतार में पुराने समय की महिलाएं या पुरुष ही नही आज की तथाकथित पड़ी  लिखी जेनरेशन भी हैं जो दिखाती तो खुद को प्रगतिशील हैं पर संतान के मामले में उन्हें भी बेटा ही चाहिए क्यों? बहुत बार तो बेटा होने को आपके सम्मान से या इज्ज़त से जोड़ दिया जाता हैं कि हां देखो मेरा तो बेटा हुआ हैं या मेरा तो पोता हुआ हैं  क्या कोई बताएगा की आपका सम्मान, आपकी इज्ज़त तो आपकी संस्कारी और अच्छी संतान बढाती हैं और वो बेटा भी हो सकता हैं और बेटी भी. मान कोई भी बढाये संतान तो आपकी ही होगी. बेटिया होने पर ताने मारे जाते हैं. उनको कोसा जाता हैं, उनको आगे नही बढने दिया जाता, कैसी सोच हैं ये? ब्याक्तिगत रूप से मैं ऐसे कई परिवारों को जानती हूँ जिनकी बेटिया ही हैं  पर आज वो किसी भी बेटे की तरह ही अपने अपने फील्ड में कामयाब हैं और अपने माँ-बाप का गौरव बड़ा रही हैं. वैदिक काल की  गार्गी, घोषा, लोपामुद्रा या आधुनिक भारत की  रानी लक्ष्मीबाई, सावित्रीबाई फुले, कल्पना चावला, सरोजिनी नायडू, किरण बेदी, निवेदिता कुकरेती, इंदिरा नुई,  सुषमा स्वराज, निर्मला सीतारमण, मेरीकोम, शाइना नेहवाल आदि को आज कौन नही जानता.  और इनके वंश का नाम भी  ये बड़ा ही रही हैं लोग आज इनके वंश को इनके ही नाम से जान रहे हैं इसलिए अब समय सोच बदलने का हैं
 समयानुसार  2 या 3 बच्चे ही काफी हैं, केवल बेटे की चाहत में 4-5 अनचाही की लाइन लगाना या लडकियों को गर्भ में ही मार देना  मुर्खता ही कहलाएगी. बच्चे दो ही सही अब वो बेटा हो या बेटी या दोनों बेटिया हो या बेटे क्या फर्क पड़ता हैं  बस आप दोनों को ही सही राह, सही संस्कार दें जो दोनों के लिए समान रूप से जरुरी हैं.
क्या आपको  भी लगता हैं की कोई फर्क पड़ता हैं इस बात से ???????

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