” मेरा दादू पार्ट-3 “
हैलो दोस्तों आज मैं फिर आपके सामने हाज़िर हूँ” मेरा दादू पार्ट-3 “लेकर.
जैसा कि आपको पिछले भाग में मैंने बताया था
की अब हमारी तिकड़ी हो गई थी मेरा छोटा भाई
मनु भी अब हमारे ग्रुप में आ गया था तो शैतानी थोड़ी सी बढ़ गई थी, वेसे ये थोड़ी सी,
मुझे या मेरे दोनों भाइयो को ही लगती थी मम्मी पापा को तो हम मासूम हमेशा शैतान और
दुष्ट ही लगते थे जिसमे बिलकुल भी सच्चाई नही थी.
हाँ तो मैं बता रही थी की तिकड़ी
बन गई थी अपनी.और तिकड़ी के मेम्बेर्स थे बिन पैंदे के लौटे, कभी मैं दादू की साइड
तो कभी दादू मनु की साइड तो कभी मनु से ही या दादू से ही आपस में पंगा. आपस में ही
कभी दे दना दन तो कभी प्यार. सच्ची बहुत प्यारे दिन थे वो जब रुठते भी खुद ही थे
और मानते भी खुद ही थे. एक दुसरे से लड़ना , पीटना, मानना, मुस्कराना और रात को
सबका एक साथ बैठकर कहानी सुनना.
कहानी का किस्सा भी मजेदार था. रोज रात को मनु और
मैं दादू के सामने बैठ जाते और वो कहानी सुनाता – एक था भगवा लाटा,,,,,,, अब ये
भगवा लाटा एक ही दिन नही होता था बल्कि रोज होता था. रोज हमको यही कहानी सुनाता और
फिर हम (मनु और मैं) मिलकर दादू को पीटते, -तू रोज यही कहानी सुनाता हैं. कोई उसके
सर के बाल नोच रहा हैं तो कोई पीठ पर चढ़ कर मुक्कों की बरसात कर रहा हैं. – बोल आज
के बाद ये कहानी सुनाएगा? नही .... नही... कल पक्का दूसरी वाली सुनाऊंगा. और हम तो हुए दयालु उस दिन के लिए माफ़ कर दिया
जाता और अगले दिन का इंतज़ार किया जाता की कल तो दादू नई कहानी सुनाएगा. और जैसे ही
अगली रात आती हम दोनो दादू के सामने बैठ
जाते और दादू शुरू हो जाता- एक था भगवा लाटा............ आगे क्या होता था आप समझ ही गये होंगें. बड़ी ही
मुश्किलों से ६-७ महीनो बाद एक नयी कहानी उसने सुनाई -डमरू ढोला बेचारा. और ये
डमरू ढोला बेचारा भी पुरे ६-७ महीनो तक चला था. पर सच्ची कहूं मजा आता था वही पुरानी कहानी सुनकर, दादू को पीटकर, दादू
बचाओ-बचाओ कहता कभी झूट-मूठ का रोता, चुपके से हम दोनों का मुह देखता हम दोनों को
भी बुरा लगता की देखो दादू को ज्यादा ही पीट दिया फिर दादू के गले से झूल जाते
उसको पटाया जाता एक दुसरे से गले मिलते हुए हम सो जाते. इतनी मीठी नीद आती की बस सुबह
ही आँख खुलती और उठने का भी मन नही करता था पर स्कूल भी तो जाना होता था न, लगता
था कितना बड़ा काम कर रहे हैं हम स्कूल जाकर, मानो मम्मी पापा पर अहसान कर रहे हों.फिर
चलते हम तीनो भाई बहन स्कूल, मेरा हाथ दादू ने पकड़ा होता और मैंने पकड़ा होता मनु
का हाथ. समय बीता और दादू क्लास 6 में आ गया. अब उसे दुसरे स्कूल जाना था जो उस
जगह से 3 किलोमीटर दूर था इंटर कॉलेज गंगोलीहाट. तेरी बहुत याद आती थी दादू जब तू दुसरे स्कूल में चला गया था.
मनु और मैं अब अकेले ही स्कूल जाते एक दुसरे का हाथ पकडे हुए, मजा ही नही आता था पहले पहले फिर बाद में आदत सी हो गई थी. पर
जब शाम को स्कूल से आते और मिलते तो
धमाचौकड़ी मच जाती. मम्मी हमारे लिए अलग अलग जंगली फल भी रखे रहती थी जो हम शाम को
या स्कूल से छुट्टी के बाद घर आकर खाते थेजैसे-हिशालू,किल्मोड़े काफल और कभी कभी
आडू, खुबानी,पुलम,माल्टा,संतरा जैसे फल. वो ठंडी जगह थी तो माल्टा, संतरा वहां खूब
होते थे. हाँ काफल से याद आया. हम जिस क्वाटर मे रहते थे उसके पीछे बड़ा जंगल था और
वहाँ थे बहुत सारे काफल के पेड़. अब तक दादू के कुछ और दोस्त भी बन गये थे तो वो
उनके साथ क्रिकेट खेलता था, अच्छा खेलता था तो लोग उसे सच्चु भाई माने सचिन
तेंदुलकर कहते थे. और अपना सच्चु भाई भी उनके साथ ही लगा रहता तो मनु और मैंने
नया तरीका ढूंडा खेलने का. घर के पीछे जंगल
में जो काफल के पेड़ थे उनमे चढ़ना-उतरना,लटकना,झूले बनाना आदि. अब गलती से भी कोई
दूसरा बच्चा उन पेड़ो पर चढ़ा नजर आता तो
उसकी खैर नही, नीचे से डंडे मार मार कर उसका पैर हाथ कमर सब सुजा दिया जाता. ही ही
ही हमको लगता अरे ये तो हमारे पेड हैं कोई दूसरा उसमे क्यों चढ़े? छोटा क़स्बा था तो
बच्चे भी ज्यादा नही थे और फिर हम दोनों भाई बहन दोनों मिलकर पिटाई करते तो हमसे
पंगे भी कोई लेता नही था. पर कभी किसी पेड़ को नुक्सान नही पहुचने देते थे हम. सच
में, कोई अकल ही नही होती बचपन में. कितना मासूम होता हैं बचपन की पेड पोधे को भी
अपनी प्रॉपर्टी समझ लेता हैं. आज सोचती हूँ तो अकेले में भी हंसी आती हैं.
छुट्टी के दिन सुबह सुबह टीवी के आगे बैठ जाते तब
रंगोली आती पहले फिर चंद्रकांता सीरियल आता था, दानासुर, डक- टेल्स. जब तक सब न
देख लेते टीवी के सामने से उठते ही नही थे.
चंद्रकांता तो उस वक्त का फेमस शो था. उसका जादू, तिलस्मी दुनिया, नौगढ़-विजयगढ़,
शिवदत्त, तारा, कलावती, चंद्रकांता, वीरेंदर सिंह, जांबांज, पंडित जगननाथ, यक्कू क्रूर सिंह उसके जलेबी जैसे बालो
वाले दो साथी, सब हमको सच्चे लगते और सोचते कहाँ हैं ऐसी दुनिया. इस नाटक का ऐसा असर
था हम पर की हमने नाम भी रखे हुए थे नाटक से ही. एक दुसरे को चिढाते -जैसे ददा को
कहा जाता यक्कू क्रूर सिंह मनु को बना दिया चंद्रकांता और मुझे सब चिढाते रुस्तम
कह कर. वेसे अब लगता हैं इन् दोनों को तो तब भी इंसानी नाम दिया ये मुझे रुस्तम
किस एंगल से कहा होगा. अब मैं कोई बाज़ तो हूँ नही. खैर जब भी झगडा होता हम भाई बहन में तो ऐसे ही
उपनामों से एक दुसरे को सुसज्जित किया जाता, साथ में घूंसा लात मुक्का सब का जौहर
दिखाया जाता और लास्ट में थक हार कर, पिटकर, रो-धोकर साथ बैठ जाते हम लोग.
बड़े ही मजे के दिन थे, कोई टेंशन नही थी अब आज के
छोटे छोटे बच्चो को देखती हूँ तो लगता हैं की बेचारो की लाइफ में न तो ऐसी शरारते
हैं न मस्ती और न ही बेफिक्री. बस्ते का बोझ और अच्छे नंबर लाने, दुसरे से आगे
निकले की होड़ हैं पर वो मासूम सा बचपन नही हैं.
बच्चे समय से पहले ही बड़ो की तरह बीहैव करने लगे हैं आजकल. मुझे तो लगता हैं की काश वो बचपन एक
बार फिर से लौट आये.. काश..
आज की कड़ी यही पर समाप्त करती हूँ फिर मिलूंगी नयी
शरारत के साथ. ये ब्लॉग कैसा लग रहा हैं आपको, बताइयेगा जरुर अपने कमेंट्स के
द्वारा...
Very nice
जवाब देंहटाएंGreat
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