मेरा दादू-भाग 4


हिमालय का सुंदर दृश्य
नमस्कार मित्रो, आज मैं फिर अपनी तिकड़ी सहित एक नयी शरारत के साथ आपके सामने उपस्थित हुई हूँ. जैसा कि आप जानते ही हैं ये मेरे बचपन की कुछ यादें हैं जिन्हें  मैं आप सब के साथ  शेयर कर रही हूँ. और यकीन जानिये जितना मैं पुरानी चीज़े लिख रही हूँ, जितना मुझे पुराना सब कुछ याद आ रहा हैं वो मुझे बहुत खुशी दे रहा हैं. सब वाकये, सब घटनाएं याद आ रही हैं और मुझे मेरे बचपन से फिर से जोडती चली जा रही हैं. लगता हैं एक फिल्म सी चल रही हैं सामने और अपना खो गया बचपन मैं फिर से जी रही हूँ. सच में बहुत अनोखा हैं ये अहसास, हम कितने भी बड़े क्यों न हो जाये, कही भी क्यों न पहुच जाये पर एक लालसा आज भी सबके मन में जरुर होती हैं की काश वो बचपन फिर से आ जाये, हम उस वक्त में पहुच जाये.

सुदर्शन फाकिर जी की लिखी एक गजल जो  जगजीत सिंह जी ने गायी थी कितनी सही लगती हैं न ऐसे वक्त में, बिलकुल सटीक और भावपूर्ण.
            ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो 
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी

        मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन

           वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी


इन्ही पंक्तियों को दोहराते हुए मै शुरू करती हूँ हमारी शरारतें जो समय के साथ कम तो हुई नही बल्कि बढ़ती ही जा रही थी. चूंकि अब तक दादू के कुछ नये दोस्त भी बन गये थे जिनके साथ वो अब हर वक्त क्रिकेट ही खेलता रहता था हमारे साथ वो कभी कभी ही खेलता था और मुझे बड़ी चिड मची रहती कि दादू अब हर वक्त हमारे साथ ही क्यों नही खेलता. हमारे घर के बगल में ही एक छोटा सा फील्ड भी था जिसमे वो लोग क्रिकेट खेलते और उसी फील्ड में काफल का बड़ा सा पेड़ भी था, तो इसी पेड़ पर चढ़कर सब प्लेयेर्स को परेशान किया जाता.  फील्ड के आगे की और कुछ किराने की, चाय की दुकाने आदि  थी. एक दूकान थी इन्दर अंकल जी की.क्रिकेट के बड़े ही शौकीन.जैसे ही दूकान में फ्री हो जाते पीछे फील्ड की और आ जाते जहा चल रहा होता क्रिकेट. तो शुरू हो जाते अंकलजी भी.अच्छा खेलते थे वो.  उस समय सचिन तेंदुलकर कम उम्र में ही क्रिकेट में छाए थे तो अंकल जी ने दादू का नाम सच्चु भाई रख दिया. इसलिए नही की मेरा दादू हैं  वो, पर  सच्चु भाई वाकई में अच्छा खेलता था,अच्छा बेट्समेन और बौलर भी.इलाके के छोटे मोटे टूर्नामेंट में जाता और अच्छे रन भी बनाता था.शाम को पढाई या होमवर्क करके जब सब क्रिकेट खेलते तो मैं अड़ जाती की मुझे भी क्रिकेट ही खेलना हैं. लडको का पूरा ग्रुप खेलता तो मुझे देखकर सब आड़े तिरछे मुहं बनाने लग जाते पर मेरा मासूम सा चेहरा देख कर दादू मुझे भी खिलाता की ये भी हमारे साथ ही खेलेगी और कहता की देख फील्डिंग भी करनी पड़ेगी. वो जानता था कि जब तक बैटिंग करती हूँ  मैं खेलती हूँ  और फिर गेम बीच में ही छोड़ देती. तो पहले ही टीम सलेक्ट कर ली जाती,  हेड-टेल  होता और गेम शुरू. अब बेटिंग करती तो पैर और बैट साथ उठ जाते और मैं आउट. बोलिग़ करती तो हाथ घूमता ही नही था, तो बॉल पकड़ कर सीधे फेंकती, जिसे आप लोग शायद टप्पा के नाम से जानते होंगे. मतलब कि मुझे अपने साथ खिलाना टोटल लोस्स पर फिर भी दादू मुझे अपने साथ खिलाता. प्यारा दादू. कभी कभी मैं लडको की तरह बॉल घुमाने की खूब प्रेक्टिस भी करती, दौड़ कर आती और हाथ घुमाने  का प्रयास करती. एक बार सब लोग घर से नीचे बने रामलीला मैदान में क्रिकेट खेल रहे थे. बॉल थी कॉर्क की रेड कलर की जिसके बीच में गोल्डन कलर की धारी होती हैं. काफी मजबूत बॉल होती हैं. दादू बेटिंग कर रहा था और मैं दूसरी साइड पर बॉलर के  बगल में खड़ी थी कि जैसे ही दादू  बॉल को मारे तो रन लेने को दोडू. दादू ने शॉट मारा जोर से, बॉल टकराई सीधे मेरे सर से जोरदार तरीके से और सर से टकरा कर बॉल बाउन्ड्री पार और ये लगा चौका. इधर मैं सर पकड़ कर जमीन में. थोड़ी देर के लिए तो अँधेरा सा हो गया सामने, सब सुन्न. दादू दौड़ कर मेरे पास आया पहले सर दबाया जब मुझे थोडा ठीक देखा तो  बोला कि देख तो तेरे सर की ताक़त, बॉल सीधे चौका गई हैं हा हा हा  लगा मुझे हँसाने. और मैंने वही किया जो मुझे करना था, मुहं फाड़कर जो रोना शुरू किया तो सब क्रिकेटरस का क्रिकेट हवा हो गया. सब मुझे चुप कराएँ और मैं रोती जाऊ की तूने मुझे जान-बूझ कर मारा हैं. मैं अभी मम्मी पापा को तेरी शिकायत करुँगी, और निकल पड़ी घर की और, तो घर की और चलती जाऊ साथ साथ रोती भी जाऊ. अब दादू को डर तो लग ही रहा था की मम्मी पापा डाटेंगे तो दौड़-दौड़ कर मेरे पास आ गया मुझे मनाने. फिर अनेको प्रलोभन दिए गये मुझे और हमेशा की तरह मैं मान गई.  वैसे एक बात थी इतनी जोर से बॉल के लगने से मुझे ज्यादा कुछ नही हुआ बस एक  गुमड सा सर पर हो गया जो धीरे धीरे  हट गया और इस बात के लिए दादू को काफी समय तक मेरी सारी बातें माननी पड़ीं. अब मैं भी क्या करती ऊंट पहाड़ के नीचे कभी कभी ही तो आता  हैं ना?
कभी कभी शाम को हम तीनो जब लड़ाई वाला खेल खेलते ,एक दुसरे को पीटते तो मनु और दादू एक हो जाते और मिलकर मुझे पीट देते मैं रोती  जोर जोर से, आँखों के आँसू हाथों से पोछते हुए, बहती नाक साफ़ करते हुए. फिर दोनों मिलकर गुदगुदी करते और कहते अब हँस. और मैं सच में रोते रोते ही हँसने लग जाती. इसी लड़ाई वाले गेम के चक्कर में मैं तीन सोने की नोज पिन (फुल्ली) खो चुकी थी,पर पापा हर बार नयी ले आते, कहते की तेरी खाली नाक बिलकुल अच्छी नही लगती हैं.  गर्मियों में जब सब दिन में सो जाते तो मनु और मैं ही जगे रहते, मम्मी और पापा हम दोनों को अपने बीच में सुलाए रखते की कही ये दोनों धुप में खेलने  ना निकल जाये तो हम इंतज़ार करते सबके सोने का, फिर मैं पापा का चेहरा देखती और मनु मम्मी का कि ये दोनों सोये की नही और जैसे ही लगता की दोनों सो गए हैं चुपके से उठते, किचन से प्लास्टिक की पन्निया उठाते और धीरे से बाहर निकल जाते.

अब ये सारी प्लानिंग इसलिए होती थी की हमको जंगल में जाकर हिशालू (Hishalu -Rubus Ellipticus) या 
काफल (Kafal- Myrica Esculenta)तोड़ने होते थे, मजे करने होते थे, घूमना होता था जंगल में और ज्यादा गर्मी के कारण मम्मी पापा बहुत डाटते कि दोपहर में बाहर नही घूमते.जंगल था तो वहाँ गर्मी में साँप या ग्वाड दिख जाते थे इसलिए मम्मी पापा डरते थे पर हम तो थे खतरों के खिलाड़ी, सारा जंगल घूमते, पेड़ो पर चड़ते, कभी कभी चिडियों के घोसले भी दिख जाते तो मजे ही आ जाते, जब तक घूम घूम कर घोसला देखते तब तक चिड़िया वही पर  चिं चिं चिं करके हमको भागने की कोशिश करती रहती, हम देखते उचक उचक कर कि चिड़िया के कितने बच्चे हैं या अंडे तो नही दिए हैं.  हमने घोसला छूने  या अंडे पकड़ने की कोशिश कभी नही की. एक बार मम्मी ने बताया था की पकड़ने से अंडे ख़राब हो जाते हैं. और आदमी की छूए हुए घोसले पर चिड़िया वापस नही आती, जब भी उसके घोसले पर चिड़िया किसी को देखती हैं तो बैचेन हो जाती हैं अपने बच्चो के लिए,जैसे मैं तुमको और तुम मुझे प्यार करते हो वेसे ही चिड़िया भी तो करती हैं अपने बच्चो को प्यार. तो इस बात को गांठ बाँध  कर रख लिया हमने. इसलिए  जब भी घोसला दिखता तो खुशी बहुत होती, छूते नही थे पर देखते जरुर थे और चिड़िया की परेशानी भी समझते थे, वहाँ से हट जाते आगे बढने को. कभी किसी पेड़ की टहनी या जड़ से लटक जाते मेरी मम्मी की भाषा में बोले तो हुलबाई खेलते (टहनी या जड़ से लटकना, हवा में गुलाटिया मारना).12 बजे दिन के गये हम शाम को 4 बजे वापस आते, साथ लाते खूब सारे लाल काले और कुछ हरे काफल(Kafal- Myrica Esculenta) जिन्हें सरसों के तेल और नमक में मिलाया जाता और  खट्टे मीठे काफल (Kafal- Myrica Esculenta) चटकारे लेकर खाया जाते. जब वापस आते, पहले तो खूब डांटा जाता हमको--जब एक बार मना कर दिया हैं तो बार बार ये गर्मी में बाहर क्यों जाते हो कुछ हो गया तो क्या होगा वगेरा वगेरा. हम मुंडी नीचे झुका के मुस्कराते हुए सब सुनते फिर जब शांति हो जाती तो काफलो की पोटली खुल जाती. हमको खूब डांट कर मम्मी पापा भी खूब काफल(Kafal- Myrica Esculenta) उड़ाते. और हम भी खुश हो जाते जब कहते --हाँ ये तो बड़े ही अच्छे हो रहे हैं.
  बहुत शुध्द, मासूम और खरा था ये बचपन और रोमांच से भरा हुआ. कुछ फन करने या स्पेशल करने के लिए हमें छुट्टियों का और टूर्स का वेट नही करना पड़ा. हमारा हर दिन उल्लासपूर्ण और मजे से भरा था. अपने घर से स्कूल आने-जाने में, कभी पानी भरकर लाने में, कभी दूर दराज के मंदिरों में जाने के रास्तो में ही  कितने खेल कर लेते थे हम . नयी-नयी  चीज़े भी यूँ ही खेल खेल में सीख जाते थे. हम पेड़ो पर चढ़े हैं, तालाबो और नदियों में तैरे हैं, पहाडो में चढ़ें हैं. अलग अलग तरीके के खेल खेले हैं.जगल जंगल घूमते, अकेशिया(Acacia) के पीले-पीले फूल तोड़ते और कभी बुरांश  (Buraansh-Rhododendron species )के लाल लाल फूल. 
बुरांश (buransh) का पेड़

 अकेशिया के फूलों से सुगंध भी खूब आती और पापा हमको उन फूलों को तोड़ने से या छूने से भी मना करते,कहते इससे सर्दी लग जाती हैं , बुरांश के फूलों से जूस बनाया जाता घर पर ही. खूब माल्टा और संतरा होते थे वहाँ,

माल्टा के फलो से लदा पेड़

उनका जूस भी घर पर बनाया जाता,, कभी हिशालू(Hishalu)कभी  काफल(Kafal), कभी मेहल(Mainhal),कभी बन-तुलसी (Bantulsi) खाते कभी पत्थरचट्टा(Pattharchatta-Berginia ligualata) जिसे पाषाणभेद कहते हैं,उसे भी बन सुपारी  कहकर खाते. ये सब हम बचपन से ही खाते रहे हैं  पर ये सब औषधिया(Medicine) हैं इनके बारे में  पता तब लगा जब  B.Sc  करी. एक और चीज़ थी पत्थरों पर एक लाईकेन(lichen)लगी  होती हैं हलके हरे रंग की, मजेठी कहते हम उसे और  मेहंदी की तरह लगाते हाथो पर. हाथो पर लाल लाल डिज़ाइन बनाते.  कभी फर्न(Fern) से हथेली की उलटी तरफ  सफ़ेद छापें बनाते और कानो में भी बाली के लिए डालते सिडुक की तरह. 



 

सच बहुत रोमांचक थी हमारी ये जिंदगी.  खुद को तब का बीयर ग्रिल से कम नही समझते थे हम. और इस रोमांच की यात्रा में मेरे साथी रहे हैं मेरे दोनों भाई- मेरे बडीज,  मेरा दादू और मनु.
आज की शरारतो को यही पर बिराम देती हूँ, आशा करती हूँ आपको ये  शरारते, ये बचपन की यादें पसंद आ रही होंगी. आज की ये यादें कैसी लगी अपने कमेंट्स के द्वारा जरूर बताइयेगा. फिर मिलूंगी किसी पुरानी यादों के साथ.




टिप्पणियाँ

  1. Bahut khoob madam....aapki posts padhke bahut maja aata hai....mujhe bhi apna bachpan yaad aa jata hai...hum bhi din me kafal todne aur cricket khelne jaya karte the...bahut sundar madam....keep it up!

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  2. वाह बचपन याद आ गया,हिसालू काफल और छाप

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